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अपोलो के विशेषज्ञों ने भारत के संदर्भ में सिकल सैल रोग पर डाली रोशनी
नई दिल्ली. इन्द्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल्स ने विश्व सिकल सैल दिवस के मौके पर एक स्वास्थ्य जागरुकता कार्यक्रम का आयोजन किया, यह दिवस हर साल 19 जून को मनाया जाता है।
रक्त विकारों के प्रख्यात विशेषज्ञ डॉ गौरव खारया, क्लिनिकल लीड, सेंटर फॉर बोन मैरो ट्रांसप्लान्ट एण्ड सैल्युलर थेरेपी, सीनियर कन्सलटेन्ट- पीडिएट्रिक हेमेटोलोजी- ओकांलोजी एवं इम्युनोलोजी ने बताया कि भारत इस रोग के बोझ की दृष्टि से दूसरे स्थान पर है और यह दक्षिणी भारत, छत्तीसगढ़, बिहार, महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेष के आस-पास के क्षेत्रों में सबसे ज़्यादा पाया जाता है। डॉक्टरों ने रोग के लक्षणों तथा इसके मरीज़ों की देखभाल के तरीकों पर भी जानकारी दी।
डॉ गौरव खारया ने बीमारी पर बात करते हुए कहा, ‘‘सिकल सैल रोग खून का आनुवांषिक विकार है, जिसमें व्यक्ति का हीमोग्लोबिन प्रारूपिक एस आकार में दोषपूर्ण होता है। आमतौर पर हीमोग्लोबिन का आकार ‘ओ’ शेप का होता है। हीमोग्लोबिन शरीर के विभिन्न हिस्सों तक ऑक्सीजन पहुंचाता है।
हालांकि इस रोग में हीमोग्लोबिन के दोषपूर्ण आकार के कारण लाल रक्त कोशिकाएं एक दूसरे के साथ जुड़कर क्लस्टर बना लेती हैं और रक्त वाहिकाओं में आसानी से बह नहीं पातीं। ये क्लस्टर धमनियों और शिराओं में बाधा बन जाते हैं और जिसकी वजह से ऑक्सीजन से युक्त रक्त का प्रवाह शरीर में ठीक से नहीं हो पाता। इससे व्यक्ति कई जटिलताओं का शिकार हो जाता है।
सामान्य आरबीसी की उम्र तकरीबन 120 दिन होती है, जबकि ये दोषपूर्ण सैल ज़्यादा से ज़्यादा 10-20 दिनों तक जीवित रह पाते हैं। इस वजह से शरीर में हीमोग्लोबिन से युक्त कोशिकाओं की संख्या गिरती चली जाती है और व्यक्ति क्रोनिक एनिमिया का शिकार हो जाता है। इस रोग से पीड़ित मरीज़ के खून में पर्याप्त ऑक्सीजन न होने के कारण उसे जल्दी थकान होती है।’’
भारत में रोग के बारे में बात करते हुए डॉ खारया ने कहा, ‘‘हाल ही में जारी रिपोर्ट्स के अनुसार इस रोग के बोझ की बात करें तो भारत दूसरे स्थान पर है। सिकल सैल एलील फ्रिक्वेंसी पर आधारित मॉडल विभिन्न प्रकार की आबादी में रोग के ज़िला-वार वितरण पर रोशनी डालते हैं। हालांकि यह रोग बहुत पुराने समय से ज्ञात है, लेकिन इस पर ज़्यादा काम नहीं किया गया है।
यह अफ्रीकी, अरबी और भारतीय आबादी में अधिक पाया जाता है। हमारे देश में यह ‘सिकल सैल बेल्ट’ में अधिक पाया जाता है, जिसमें मध्यम भारत का डेक्कन पठार, उत्तरी केरल और तमिलनाडू शामिल है। यह छत्तीसगढ़, बिहार, महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेश के पड़ोसी इलाकों में भी पाया जाता है।’’
डॉ खारया ने लोगों को रोग के विभिन्न लक्षणों के बारे में जानकारी दी। ‘‘यह रक्त का आनुवांशिक विकार है, इसलिए जब नवजात शिश पांच महीने का होता है, तभी उसमें रोग के लक्षण दिखाई देने लगते हैं जैसे त्वचा का पीला पड़ना और आखों का सफेद होना ।
सिकल सैल के मरीज़ को जल्दी थकान होती है, उसके हाथों-पैरों में सूजन और दर्द होता है। सिकल सैल के मरीज़ों को बार-बार संक्रमण की संभावना होती है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनका विकास ठीक से नहीं हो पाता और उन्हें देखने में समस्या हो सकती है।’’
रोग की रोकथाम और मरीज़ की देखभाल के बारे में बताते हुए डॉ खारया ने कहा, ‘‘व्यक्ति में सिकल सैल एनिमिया की स्थिति को जानना बहुत महत्वपूर्ण है। हर अविवाहित व्यक्ति को अपनी जांच द्वारा यह सुनिष्चित करना चाहिए कि उसने सिकल सैल एनिमिया का जीन तो नहीं या क्या उनमें यह दोषपूर्ण जीन है।
ताकि वे अपने जीवनसाथी का चुनाव करते समय या गर्भावस्था की योजना बनाते समय उचित सतर्कता बरत सकें। जिन परिवारों में सिकल सैल रोग का इतिहास हो उनमें जन्मपूर्व निदान के द्वारा इस जीन को भावी पीढ़ियों में जाने से रोका जा सकता है।’’
सिकल सैल विकार से पीड़ित बच्चों की देखभाल की बात करें तो उनके लिए नियमित टीकाकारण बहुत ज़रूरी है, इन बच्चों को बहुत अधिक उंचाई या बहुत अधिक तापमान से बचाना चाहिए, इनके हाइड्रेशन और स्वस्थ जीवनशैली का खास ध्यान रखना चाहिए।
इन्हें नियमित रूप से उचित दवाएं जैसे हाइड्रॉक्स्युरिया, पैनिसिलिन, फोलिक एसिड और एंटीमलेरियल प्रोफाइलेक्टिसस आदि देनी चाहिए। बहुत ज़्यादा जटिलता के मामले में तुरंत डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए।
डॉ खारया ने बताया कि सिकल सैल रोग के लिए बोन मैरो ट्रांसप्लान्ट ही एकमात्र उपचार है। हालांकि लोग इस विकल्प के बारे में ज़्यादा जागरुक नहीं है। डॉ खारया दुनिया के विभिन्न हिस्सों में तकरीबन 100 बोन मैरो ट्रांसप्लान्ट कर चुके हैं और उनकी सफलता दर बहुत अच्छी रही है। उन्हें सबसे जटिल ट्रांसप्लान्ट्स को सफलतापूर्वक पूरा किया है। राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर उनके काम को खूब सराहा गया है।
डॉ खारया ने सम्मेलन के दौरान दो मामलों पर रोषनी डाली जिसमें सिकल सैल से पीड़ित मरीज़ों का इलाज बीएमटी द्वारा किया गया। ‘‘हमने युगाण्डा से आए 10 महीने के बच्चे कायली का इलाज किया, कुछ ही महीने पहले हमने बीएमटी प्रक्रिया से उसका इलाज किया है। उसका तीन साल का भाई इस मामले में डोनर था और उनकी जेनेटिक कम्पेबिलिटी 100 फीसदी थी।
एक और मामले में मां ने अपने बेटे के लिए डोनर की भूमिका निभाई। इस मामले में 50 फीसदी मैच हुआ और यह सर्जरी भी कुछ ही समय पहले की गई है। आज दोनों बच्चे ठीक हैं और स्वस्थ एवं सामान्य जीवन जी रहे हैं।’’
अंत में डॉ खारया ने सिकल सैल रोग से सम्बन्धित विभिन्न सवालों के जवाब दिए और इस रोग से जुड़े मिथकों एवं गलत अवधारणाओं के बारे में बताया।